कांग्रेस की देखादेखी देश की अन्य पार्टियां भी प्राइवेट लिमिटेड कंपनियां बन गई हैं, यदि कांग्रेस मां-बेटा पार्टी है तो भाजपा आज भाई-भाई पार्टी है

राजस्थान में कांग्रेस सरकार का भविष्य जो भी हो, इससे इनकार नहीं कर सकते कि एक राष्ट्रीय राजनीतिक दल के तौर पर कांग्रेस कमजोर हो चुकी है। कुछ राज्यों में कांग्रेस को बहुमत मिला और कुछ में वह सबसे बड़ा दल बनकर उभरी लेकिन आज कांग्रेस उनमें से कई में विरोधी दल बनकर बैठने पर मजबूर हुई है।

लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि कांग्रेस जितने वर्षों तक इस विशाल देश में सत्तारूढ़ रही है, शायद दुनिया की कोई पार्टी नहीं रही है। आज भी देश का कोई जिला ऐसा नहीं है, जहां कांग्रेस कार्यकर्ता न हों। कांग्रेस के अध्यक्षों में किस धर्म, जाति, प्रांत, भाषा और योग्यता के लोग नहीं रहे? सबसे बड़ी बात यह है कि देश की आजादी का बहुत बड़ा श्रेय कांग्रेस को ही है।

ऐसी कांग्रेस का अत्यंत निर्बल होना या खत्म हो जाना क्या देश के लिए फायदेमंद है? क्या भारत जैसे विशाल देश में कांग्रेस जैसा फैलाव किसी अन्य पार्टी का रहा है? भारतीय लोकतंत्र के लिए यह शुभ-शकुन है कि भाजपा एक अखिल भारतीय पार्टी बनती जा रही है। इसके अध्यक्ष का दावा है कि उसके 11 करोड़ से ज्यादा सदस्य हैं।

लेकिन हम यह न भूलें कि इसका मुख्य कारण यह है कि अभी भाजपा केंद्र और राज्यों में सत्तारूढ़ है। किसी भी स्वस्थ लोकतंत्र के लिए अनिवार्य है कि वहां कम से कम दो बराबर की पार्टियां हों।1967 में और 1977 के बाद से हम देख चुके हैं कि चाहे केंद्र हो या कोई राज्य, जब भी गठबंधन सरकारें बनती हैं तो उनकी गांठ कभी भी खुल पड़ती है और ढीली तो वे हमेशा ही रहती हैं।

भारत पिछले 73 वर्षों में इतना पिछड़ा इसीलिए रहा है। जो देश हमसे बहुत पिछड़े थे, वे कितने आगे निकल गए? चीन, वियतनाम, कोरिया, श्रीलंका और ईरान जैसे राष्ट्रों ने हमें कई मामलों में पीछे छोड़ दिया है।
इन राष्ट्रों में लगभग एक पार्टीतंत्र रहा है। क्या हम भी उसी नक्शे-कदम पर चलनेवाले हैं?

यदि हां तो ‘कांग्रेसमुक्त भारत’ का नारा हमें उसी दिशा में ले जाएगा, जो भारतीय लोकतंत्र का अंतिम संस्कार कर देगा। अभी दूर-दूर तक ऐसी कोई संभावना नहीं दिखाई पड़ रही है कि कांग्रेस-जैसी कोई अखिल भारतीय पार्टी उभर जाए। तो देश क्या करे ? कांग्रेस में जान डाले। उसे जिंदा करे। कैसे करें?

सबसे पहले कांग्रेस खुद को मुक्त करे। वह खुद को गांधी कांग्रेस बनाए। उससे भी आगे बढ़े। वह नेहरु और इंदिरा परिवार से अपने आप को मुक्त करे। अभी की कांग्रेस का महात्मा गांधी से कुछ लेना देना नहीं है। यदि कांग्रेस को गांधी कांग्रेस बनाना है तो उसे सबसे पहले अधोमूल बनाना होगा।

वह अभी उर्ध्वमूल है। इस समय उसकी जड़े ऊपर हैं। जमीन पर नहीं हैं। उसके कार्यकर्ताओं और नेताओं की शक्ति जनता से नहीं, नीचे से नहीं, ऊपर से आती है। आज कांग्रेस के कार्यकर्ताओं या नेताओं में इतना दम नहीं है कि वे अपना नेता स्वयं चुनें। वे हतप्रभ या लकवाग्रस्त हो चुके हैं।

यह पहल तो सोनिया गांधी और राहुल को ही करनी होगी। वे महात्मा गांधी की तरह खुद को पदमुक्त रखें। सारे कांग्रेसियों के लिए श्रद्धा और अनुकरण के केंद्र बनें। पार्टी के अध्यक्ष और महासचिव की नियुक्ति कार्यकर्ताओं के खुले मतदान के द्वारा हो। पार्टी के जिला स्तर के पदाधिकारी भी खुले चुनाव द्वारा नियुक्त हों।

देखिए, फिर कैसा चमत्कार होता है! यदि कांग्रेस पार्टी में आतंरिक लोकतंत्र होगा तो किसी सत्तारूढ़ दल की हिम्मत नहीं है कि वह देश में तानाशाही प्रवृत्तियों को आगे बढ़ा सके। कांग्रेस की देखादेखी देश की अन्य पार्टियां भी प्राइवेट लिमिटेड कंपनियां बन गई हैं। यदि कांग्रेस मां-बेटा पार्टी है तो भाजपा आज भाई-भाई पार्टी है।

विभिन्न प्रांतों में हम बाप-बेटा पार्टी, भाई-भतीजा पार्टी, पति-पत्नी पार्टी, ससुर-दामाद पार्टी, बुआ-भतीजा पार्टी, मामा-भानजा पार्टियां भी देख रहे हैं। यदि कांग्रेस परिवारवाद से मुक्त हो जाए तो शायद ये सभी पार्टियां उसके साथ मिलकर देश में एक सक्षम विपक्ष खड़ा कर लें। देश के लोकतंत्र की यह अपूर्व उपलब्धि होगी।

यदि भारत में अमेरिका की रिपब्लिकन और डेमोक्रेट तथा ब्रिटेन की कंजर्वेटिव और लेबर पार्टी की तरह द्विपार्टी व्यवस्था कायम हो जाए तो देश में प्रगति की रफ्तार दोगुनी हो सकती है।कांग्रेस के पास आज भी अनुभवी नेताओं, तपस्वी कार्यकर्ताओं और उच्चकोटि के बौद्धिकों की कमी नहीं है।

विरोधी दल के नेता यदि आंख मारने और झप्पी मारने की बजाय हर मुद्दे पर ठोस तथ्य और तर्क पेश करें तो जनता उन्हें गंभीरता से लेगी। कांग्रेस चाहे तो आज भी वैकल्पिक मंत्रिमंडल का निर्माण करके देश का लाभ और अपनी छवि में सुधार कर सकती है।

सत्तारूढ़ भाजपा और सरकार पर अनावश्यक शब्द-बाण चलाने की बजाय कांग्रेस कार्यकर्ताओं को देश की प्रमुख समस्याओं के बारे में सुप्रशिक्षित कर सकती है और देश की सभी राजनीतिक पार्टियों को संदेश दे सकती है कि नेताओं का एकमात्र लक्ष्य नोट और वोट कमाना नहीं है, बल्कि भारत को गांधी, महावीर स्वामी और महर्षि दयानंद के ‘महान आर्यावर्त्त’ में परिणिति करना है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)



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डॉ. वेदप्रताप वैदिक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष


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