मुंबई यानी मायानगरी, जहां छोटे शहरों से निकलकर लोग अपने बड़े सपनों को पूरा करने के लिए आते हैं, संघर्ष करते हैं, कोशिश करते हैं। इसमें कुछ गुमनाम हो जाते हैं तो कुछ अपने ख्वाबों को पंख देने में कामयाब हो जाते हैं। ऐसी ही कहानी है जौनपुर के अनूप सिंह की।
घर की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी, मुश्किल से परिवार की जीविका चल रही थी, उनके पिता गांव में ही छोटे-मोटे काम करते थे। इसलिए रोजगार के लिए 2008 में वे मुंबई पहुंचे। पहली नौकरी एक कंपनी में बतौर वाचमैन की लगी। कुछ दिनों तक उन्होंने यहां काम किया, फिर लूज ऑयल के केन की सप्लाई करने लगे।
इसके बाद मुंबई के एक कॉल सेंटर में उन्होंने काम शुरू किया। लेकिन, यहां भी उनका मन ज्यादा दिन नहीं लगा। फिर उन्होंने एक कंपनी में बीमा कराने का काम शुरू किया। यहां करीब 8 महीने तक उन्होंने काम किया, फिर 2015 में वे डायरेक्ट सेल्स एजेंट (डीएसए) का कारोबार करने वाली एक कंपनी से जुड़ गए।
हालांकि, यहां भी वे ज्यादा दिन काम नहीं कर सकें। फिर उन्होंने ट्रांसपोर्ट लाइन में कदम रखा और फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। आज अनूप का सालाना टर्न ओवर 15 करोड़ रुपए है।
अनूप बताते हैं कि डीएसए में काम करने के दौरान मेरे पास कमर्शियल व्हीकल जैसे डंपर, ट्रक वाले आते थे। अगर किसी को डंपर के लिए लोन लेना होता था तो हम उसकी पूरी प्रोफाइल यानी इनकम टैक्स रिटर्न, बैंक ट्रांजेक्शन, वर्क ऑर्डर, प्रॉपर्टी जैसी चीजों की जांच करते थे। इसी दौरान मैंने देखा कि कुछ ग्राहकों के टर्न ओवर और बैलेंस शीट में अच्छी खासी बढ़ोतरी हो रही है, जबकि वे ज्यादा पढ़े-लिखे भी नहीं है, वे लोग भी गांव से ही यहां आए हैं।
इसके बाद मेरे मन में भी कुछ इसी तरह का काम करने का ख्याल आया। चूंकि, मैं लोन दिलाने का काम करता था इसलिए इस फिल्ड में काम करने वाले कुछ लोगों से मेरी पहचान थी। मैंने उनसे बात की और लोन पर एक गाड़ी खरीदी और काम करना शुरू किया। जैसे-जैसे काम बढ़ते गया वैसे-वैसे गाड़ियों की संख्या भी बढ़ती गई। आज मेरे पास 10 ट्रक हैं। जो आरडी एंड संस नाम के बैनर तले मुंबई की सड़कों पर दौड़ रहे हैं।
अनूप कहते हैं कि इस काम के लिए किसी ट्रेनिंग या योग्यता की जरूरत नहीं है। इसके लिए बराबर मेहनत करना और काम को मॉनिटर करना होता है। क्योंकि गाड़ी ड्राइवर चलाता है। हमें बस पार्टी की जरूरत होती है, लोगों से बात करनी होती है, उनका भरोसा जीतना होता है। इस फिल्ड में सब कुछ संपर्क पर ही निर्भर करता है।
वे कहते हैं कि ट्रांसपोर्ट लाइन में काम करने के लिए शुरू में हमें 15-20 लाख रुपए की जरूरत होती है। इसके लिए कई कंपनियां लोन भी देती है। सबसे बड़ी चीज है कि खुद को मार्केट में बनाए रखना होता है ताकि गाड़ियां खड़ी नहीं रहे। हमारा सारा बिजनेस गाड़ियों के चलने से ही चलता है। ट्रांसपोर्ट के साथ-साथ वे कंक्रीट, आरएमसी और बिल्डिंग मटेरियल की सप्लाई करने वाली कंपनियों के प्रोजेक्ट के लिए भी काम करते हैं।
अनूप बताते हैं कि इस काम में रिटर्न के लिए लंबा इंतजार नहीं करना होता है। जैसे ही गाड़ी चलती है रिटर्न आना शुरू हो जाता है। जिस पार्टी का सामान हम पहुंचाते हैं उससे कुछ दिन बाद पैसे कलेक्ट कर लेते हैं। वे बताते हैं कि कई पार्टियां समय पर पैसा नहीं देती है। कई बार पेमेंट भी डिफॉल्ट हो जाता है।
कई बार गाड़ी खराब भी हो जाती है तो कभी एक्सीडेंट का भी शिकार हो जाती है। इसलिए इस फिल्ड में रेगुलर इनकम की जरूरत होती है। भले ही आप थोड़े सस्ते में माल की सप्लाई करें।
आज अनूप के साथ कुल 47 लोग काम करते हैं। इनमें से 40 ड्राइवर हैं। ट्रांसपोर्ट लाइन में ड्राइवरों को मैनेज करना सबसे मुश्किल काम होता है। वे बताते हैं कि ड्राइवर कई बार समय पर नहीं मिलते हैं, कई बार झूठ भी बोलते हैं, जिससे काम रुक जाता है। काम रुकने का मतलब है आमदनी भी रुक जाती है।
अनूप करीब डेढ़ साल से यह काम कर रहे हैं। फिलहाल महीने का एक से सवा करोड़ रुपए का टर्नओवर है। 8-10 लाख रुपए महीने का मुनाफा है। लॉकडाउन के दौरान उनके धंधे में ब्रेक तो नहीं लगा लेकिन मुनाफा नहीं हो पाया। वे बताते हैं कि लॉकडाउन में गाड़ियों का मूवमेंट जरूर बंद रहा, लेकिन हमें राज्य सरकार के कोस्टल रोड प्रोजेक्ट के लिए परमिशन मिली थी। इसलिए थोड़ा बहुत मूवमेंट था। इससे गाड़ियों की ईएमआई और ड्राइवरों की सैलरी का खर्च निकल जाता था।
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